Friday, October 28, 2005


जलजला...
गई रात,
नींद मुझसे शायद खफ़ा थी
मैं बिस्तर पे था, मुझपे लटका था पंखा
मुझे घूरता-हाँफ़ता चल रहा था,
कि जैसे मैं चलता हूँ दफ़्तर से घर को.
निगाहों के आगे वही एक मंजर
ना जाने क्यों रह-रह के आता था मुझको
कहीं जलजला गर मेरे घर भी आता...
मकां ढह के गिरता
तबाह होता कुनबा
मेरे बीवी-बच्चे
मेरे ख्वाब सच्चे
मेरी माँ की फ़ोटो ऒ' बाबा का चश्मा
वो गुल्लू की मस्ती- वो छुट्की की गुडिया
सभी कुछ को मलबा बना कर के जाता
कहीं जलजला गर मेरे घर भी आता.
मेरे ही तो जैसा था कल एक इन्सां,
जो पागल-सा मलबे में कुछ ढूँढता था
जो आँखों में आशा की एक बूँद लेकर
उन आँखों का दीपक वहाँ ढूँढता था
निहत्था, फ़कत अपने दो हाथ लेकर.
तभी कोई आकर के ये बात कहता,
' इमारत ये अब कब्रगाह हो चुकी है'
ये सुनकर दो हाथों की बोझिल कुदालें
बहुत तेज चलने लगी बेतहाशा,
उफ़नने लगी धोंकनी जैसी छाती
लगी बुझने आँखों की इकलॊती आशा
उम्मीदों की बाती.
....अगर जलजला ये मेरे घर भी आता ???
यही सोचता हूँ
यही तुम भी सोचो
यही सोचे दुनिया
.....अगर जलजला ये मेरे घर भी आता???
-संजय विद्रोही

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